Chhattisgarh - Ek Nazar2 - AKY.
यह खेल लडकियां अक्सर खेलती थीं । इनमें दो तरफ छह-छह गड्ढे या लकडी के पटिये पर गड्ढे बनाए या खोद लिए जाते हैं । दोंनों किनारे पर बडे-बडे गड्ढे बनाए जाते हैं । इन्हें बडा कोठी या ढाबा कहते हैं । सभी छह-छह खानों में गिनकर इमली के बीज डाल दिए जाते हैं ।फिर एक खिलाडी एक गड्ढे या खाने से बीज निकाल कर बाएं तरफ से प्रत्येक खाने में एक-एक बीज डालता है जहां बीज खत्म होता है उसके अगले खाने से फिर बीज निकाल कर उसी तरह प्रत्येक खाने में डालते जाते हैं यदि किसी बार बीज ओसे खाने में खत्म हो जिसके अगले खाने में बीज न हो तो खिलाडी का दांव खत्म हो जाता है उसके बाद दुसरा खिलाडी अपने खाने से निकालकर यही खेल शुरु करता है जब एक खिलाडी के तरफ से सब बाज दुसरी तरफ हो जाएं तो वह खिलाडी जीत जाता है, इस खेल में संख्या ज्ञान काफी सहायक होता है और खिलाडी ऐसे घर से बीज उठाकर शुरु करता है कि विरोधी खिलाडी के तरफ के सब बीज उठाकर अपनी तरफ के खानों में डालता जाए । |
यह खेल किसी शाखादार वृक्ष के नीचे एक लकड़ी का डण्डा रख दिया जाता है। जो खिलाड़ी दांव देता है, वह नीचे रहता है बाकी पांच छह खिलाड़ी पेड़ पर चढ़ जाते हैं। नीचे वाला खिलाड़ी पेड़ पर चढ़े खिलाड़ी को पेड़ पर चढ़कर छूने की कोशिश करता है। वह खिलाड़ी बचकर नीचे आकर रखी गई लकड़ी को छू लेता है, तो बच जाता है। यदि उसे दांव देने वाले खिलाड़ी ने पेड़ छू लिया तो उसे दांव देना पड़ता है, जो बच्चे या ग्रामीण पेड़ों पर कुशलता एवं सावधानी से चढ़कर यहाँ-वहाँ जा सकते हैं केवल वे ही इस खेल में सफल हो सकते है। |
इस समूह खेल में भी संख्या निर्धारित नहीं होती है। एक खिलाड़ी दांव देता है बाकी अलग-अलग स्थानों में छुप जाते हैं। जो दांव देता है वह छुपने वाले खिलाड़ियों को खोजकर उसका नाम लेकर कहता है पहला टीप सोहन(नाम), दूसरा टीप राम(नाम) .... , यदि छुपे हुए किसी भी खिलाड़ी द्वारा उसे छूकर रेस कहकर छू दिया जाता है तो जो पहला टीप होता है उसे दांव देना पड़ता है- इसी तरह चोर-सिपाही के खेल में भी होता है। इसमें खिलाड़ी को अंधेरे में छिपे हुए खिलाड़ियों को पहचानकर ढूंढना होता है। इससे उसकी बुद्धि कौशल का पता चलता है। |
इसे गांव में इब्बा भी कहते हैं, इसे दो से लेकर 8 - 10 लोग समूह बनाकर खेल सकते हैं। यह शक्ति संतुलन और कल्पना शक्ति का खेल है। एक डंडा तथा छोटी सी लकड़ी के दोनों छोर को नुकीला बनाकर, मारकर उछालते हैं। जितनी अधिक दूर तक जाए वही जीतता है तथा दूसरे पक्ष को दांव देना होता है। यह खेल अब भी गाँवों में काफी लोकप्रिय है। |
यह गेंद से खेलने वाला खेल है। जिस खिलाड़ी के हाथ में गेंद होती है वह दूसरे खिलाड़ियों को गेंद फेंककर मारता है। दूसरे खिलाड़ी गेंद से बचने की कोशिश करते हैं। इस खेल को कभी-कभी दो पक्ष बनाकर भी खेला जाता है। एक पक्ष का खिलाड़ी अपने ही पक्ष के अन्य खिलाड़ी को गेंद पास करता है ताकि वह नजदीक के विरोधी खिलाड़ी को गेंद नार सके। यहाँ पर गेंद ना होने पर कपड़े की गेंद बनाकर भी खेला जाता है। |
इस खेल में भी दो समूह होते हैं। खिलाड़ियों की संख्या बराबर-बराबर होती है, एक छोटे गोल घेरे के भीतर सात खपरैल के टुकड़े एक दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं। सबसे पहले एक समूह गेंद मारकर खपरों को गिराता है,फिर दूसरा समूह मौका पाकर खपरों को पूर्व की भाँति जमाने की कोशिश करता है। इस बीच दूसरे समूह के खिलाड़ी गेंद से खपरों को जमाने वाले खिलाडी को गेंद मारने की कोशिश करते हैं, और वह उनसे बचकर फिर से खपरों को जमाने की कोशिश करते हैं। यह कोशिश तब तक चलती रहती है, जब तक की खपरे के टुकड़े फिर से अपनी पूर्ववत् स्थिती में जमा नहीं लिए जाते हैं। जमा लेने पर दूसरे समूह को दांव देना होता है। |
इस खेल को सामान्यतः बरसात के समय खेला जाता है, जब कि मिट्टी गीली होती है। लोहे का एक नुकीला लगभग एक फीट लम्बा टुकड़ा लेकर खिलाड़ी बिना किसी चीज की सहायता के इसे फेंककर जमीन में गड़ाते हैं। फिर उसे उखाड़कर फिर से धंसाते हैं और काफी दूर तक निकल जाते हैं।यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक की वह लोहे की छड़ फेंकने पर ना गड़े। ना गड़ने पर दांव देने वाले खिलाड़ी को वहीं से एक पाँव पर दौड़ते-दौड़ते प्रारंभिक स्थान तक वापिस आना पड़ता है। फिर दांव देने वाला खिलाड़ी इसी प्रकार दूसरे खिलाड़ी को पदाता है। |
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हरेली पर्व के समय गेंड़ी के खेल और गेंड़ी दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। इसमें बाँस के पाँच से दस फीट के डण्डे उसमें दो तीन फीट की ऊँचाई पर एक दूसरे बाँस के टुकड़े को चीरकर बांध दिया जाता है। इसमें चढ़कर खिसाड़ी रच्च-रच्च बजाकर दौड़ते कूदते हैं। य़ह पूरी तरह संतुलन का खेल है और कभी-कभी तो इसकी ऊँचाई दस-दस फीट तक होती है। |
यह खेल गाँव में खेलते समय घर के किनारे बने हुए चबूतरों को पहाड़ तथा नीचे गसी को नदी मानकर खेला जाता है। जो खिलाड़ी दांव देता है वह नदी में आने वाले खिलाड़ियों को दौड़ा-दौड़ाकर छूने की कोशिश करता है तथा उन्हें पहाड़ पर ही रहने को बाध्य करता है। यदि कोई खिलाड़ी नदी में दांव देने वाले से छू लिया जाता है तो उसे दांव देना पड़ता है। |
किसी भी प्रदेश की लोकभाषा,
लोक साहित्य और उसकी अपनी
सांस्कृतिक परंपराएँ व प्रतीक उस देश या प्रदेश की पहचान होती है।
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोककला
और उसकी सामाजिक संरचना किसी भी क्षेत्र से पिछड़ा नहीं है। "लेकी" नाम के अंग्रेज
ने एक माह चौदह दिन के अपना छत्तीसगढ़ प्रवास में यहाँ के लोगों को अतिथि
परायण में सर्वश्रेष्ठ कहा, जबकि
अठारहवीं शताब्दी के मेजर एगन्यू ने अपराधों से दूर रहने वाले, ईमानदार, सत्यनिष्ठ, स्वच्छंद और नैतिकवान कहा है। |
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छत्तीसगढ़ में लगभग सभी शुभ अवसरों,
त्यौहारों, पर्वों व अनुष्ठानों में चौक चित्रकला
छत्तीसगढ़ी जनमानस की अभिन्न व आकर्षक भावाभिव्यक्ति है। बेल-बूटों, पग चिन्हों इत्यादि की विभिन्न आकृतियों
की श्रृंखलाबद्ध सज्जा जितनी कल्पनाशील छत्तीसगढ़ में दिखाई देती है, उतनी किसी अन्य अंचल में नहीं। |
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गोदना जिसे अंग्रजी भाषा में टेटु
कहा कहा जाता है, छत्तीसगढ़ी
जनमानस का एक मुख्य आभूषण है। यहाँ की अधिकांश जनजातियाँ अपने श्रृंगार में गोदना
को प्रमुख
स्थान देती हैं। आभूषण के तौर पर यह ना केवल स्त्रियों में बल्की पुरूषों में भी
समान रूप से लोकप्रिय है। |
नोहडोरा एक प्रकार की उद्रेखण कला
है, जो की सामान्यतः घरों
की दीवारों पर अपने घर की सुख-शांति, समृद्धि, बुरी बलाओं व आपदा इत्यादि की कामना के साथ बनाई जाती है। छत्तीसगढ़ी महिलाएँ नया घर
बनाते समय दीवारों पर मिट्टी से सजात्मक, उठे हुए अथवा गहरे अलंकरण बनातीं हैं, जो कि आगामी कई वर्षों तक दीवारों पर
यथावत बनें रहते हैं। इस कला को छत्तीसगढ़ में "नोहडोरा डालना"
कहते हैं। |
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बालपुर कला छत्तीसगढ़ में महानदी
के किनारे बसे गांवों में विभिन्न पौराणिक चित्र बनाने वाले चितेरों (चितेर
कलाकरों) की एक पारंपरिक कला है, जो कि अब इनकी पृथक पहचान बन गई है। |
सवनाही - श्रावन मास की हरियाली अमावस्या को छत्तीसगढ़ी महिलाएँ घर के मुख्य द्वार की दीवारों पर गोबर से "सवनाही" का अंकन करतीं हैं। गोबर को हाथ में लेकर चार ऊंगलियों के सहारे घर के चारों दीवारों को मोटी रेखा से घेर दिया जाता है। मुख्य द्वार के दोनों ओर की रेखा पर कुछ मानव व पशुओं की आकृतियाँ बना दी जाती हैं, इसमें शेर के शिकार का चित्र प्रमुखता से बनाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सवनाही बनाने से घर में किसी प्रकार की बाहरी बाधा या संकट नहीं आती है। आठै कन्हैया - कृष्ण जनमाष्ठमी में मिट्टी के रंगों से भित्ति पर बनाया जाने वाला कथात्मक चित्र है, जिसमें कृष्ण की जन्मकथा का चित्रण होता है। इस पर्व में स्त्रियाँ अराध्य देव कृष्ण की आठ पुतलियाँ बनाकर उनकी उपासना करतीं हैँ, इसीलिए इस चित्रकला का नाम "आठे कन्हैया" पड़ा। हरतालिका - हरतालिका चित्रकला शिव-पार्वती की पूजा के पर्व का प्रतीक है। जो कि भगवान शिव को प्राप्त करना के लिए माता पार्वती की कठिन तपस्या के प्रतीक के रूप में बनाया जाता है। हरतालिका का चित्र तीज के दिन बनाया जाता है। इस दिन महिलाएँ व्रत भी रखतीं हैं। गोबर चित्रकला- छत्तीसगढ़ एक कृषि प्रधान प्रदेश है, इसलिए यहाँ के अधिकांश पर्व, उत्सव, लोककलाओं आदि किसी ना किसी प्रकार से कृषि पर आधारित हैं। दीपावली के समय गोवर्धन पूजा के दिन धान की कोठी में अनेक प्रकार के चित्र बनाए जाते हैं तथा अन्न लक्ष्मी की पूजा की जाती है। गोबर चित्रकला समृद्धि की कामना हेतु की जाती है। |
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प्रत्येक समाज में लोककलाओं के अंतर्गत लोक नृत्य का अपना विशेष महत्व होता है। ये लोकनृत्य जनमानस के सामाजिक व सामूहिक सौंदर्य के प्रतीक होते हैं। नृत्य उल्लास के प्रतीक होते हैं। जब मनुष्य उल्लास से पुलकित हो उठता है, तब उसके शरीर में थिरकन शुरू हो जाती है और यही थिरकन समय के साथ परिष्कृत होकर नृत्य की एक विशेष शैली के रूप में प्रचलित हो जाती है। उल्लास पहले गीतों के रूप में प्रकट होता है, फिर गीत की पद के |
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साथ-साथ अंग संचालन के संयुक्त हो जाने से नृत्य का रूप ले लेता है। छत्तीसगढ़ के विभिन्न नृत्य प्रायः किसी ना किसी पर्व से संबंधित हैं। छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य अपने में विविधताओं को समाए हुए हैं। नृत्य की विशेष शैली, वेशभूषा आदि के कारण ये विश्व प्रसिद्ध रहे हैं। |
सुआ नृत्य, छत्तीसगढ़ी महिलाओं व किशोरियों का
नृत्यपर्व है। इस नृत्य की छत्तीसगढ़ी जनमानस में सर्वाधिक लोकप्रियता है। सुआ नृत्य धान की
फसल के पकने के बाद और दिपावली के कुछ दिनों पूर्व प्रारंभ होता है और इस
नृत्य का समापन दिपावली की रात्रि में शिव-गौरी के विवाह आयोजन के ताथ समाप्त
होता है। |
पंथी नृत्य
छत्तीसगढ़ ते सांस्कृतिक धरातल में आधार के समान है। यह नृत्य सतनामी जाति का एक
पारंपरिक लोकनृत्य है। विशेष त्यौहार के अवसर पर सतनामी "जेतखाम" की स्थापना
करते हैं। इसकी स्थापना के साथ ही पंथी गायन व नृत्य प्रारंभ होता है। |
राउत नाचा को गहिरा
के नाम से भी जाना जाता है। यह नृत्य राउतों के द्वारा किया जाता है। राउत
अपने आप को भगवान श्री कृष्ण का पूर्वज मानते हैं। |
चलता रहता
है।इस नृत्य में राउत गांव शहर के सारे प्रतिष्ठित व प्रियजनों के घर-घर जाकर
नृत्य प्रदर्शन करते हैं व सभी के मंगल की कामना करते हैं। |
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छत्तीसगढ़ के लोकगीतों में चंदैनी का
विशेष स्थान है। यह मूलतः एक प्रेम गाथा है। जिसमें पुरुष पात्र विशेष
वेशभूषा धारण किए हुए डोल-डोलकर चंदैनी की कथा प्रस्तुत करते हैं। इस नृत्य
का सबसे महत्वपूर्ण व आकर्षक भाग वह है, जिसमें विदूषक बीच-बीच में जलती हुई मशाल को लेकर करतब दिखाता
है। रात भर चलने वाला यह नृत्य टिमकी और ढ़ोलक के साथ किया जाता है। |
आदिवासी रूपंकर कलाओं के अंतर्गत् वे कलाऍ आती हैं,जिनके द्वारा आदिवासी अपने कलाभाव को आकार प्रदान करते हैं । इनमें उनकी प्राचीन कला व संस्कृति का वास्तविक परिचय मिलता है । इनमें आदिवासी मिट्टी , बांस , धातु , घास-पात आदि का उपयोग कर विभिन्न कलात्मक वस्तुओं का सृजन करते हैं । |
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आदिवासियों में अनेक प्रकार की कंघियों का प्रचीन काल से ही प्रचलन रहा है । इनमें कंघियों का इतना महत्व है कि कंघियाँ - अलंकरण, गोदना एवं भित्तीचित्रों में हमेशा मिलती हैं । कंघियों में घड़ाई के सुंदर काम के साथ-साथ रत्नों की जड़ाई, मीनाकारी और अनेक तरीकों से अलंकरण किया जाता है । बस्तर की जनजातियों के मध्य कंघी - प्रेम और सौंदर्य के उपादान के रूप में प्रचलित व प्रतिष्ठित है । विषेशकर मुड़िया जनजाति के लोगों में कंघियाँ अत्यंत कलाकारी से युक्त है । इसके जीवंत उदाहरण जगदलपुर के संग्रहालय में उपस्थित हैं । |
यह बस्तर में निवास करने वाली
घड़वा जाति की एक प्रसिद्ध शिल्प कला है। इस कला में प्राचीनतम् व परंपरागत तकनीक का
प्रयोग किया जाता है। इसमें भ्रष्ट मोम का प्रयोग होता है। पीतल, कांसा व मोम से बने घड़वा शिल्प बस्तर के
आदिवासियों के देवलोक की गाथाओं से जुड़े होते हैं। |
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अंचल में काष्ठ
शिल्पकला अत्यंत प्राचीन व समृद्ध हैं। अलंकरण से मूर्ति तक की समृद्ध काष्ठ कला
मंदिरों और आवासों में देखी जा सकती हैं। यहॉ मुड़िया युवागृहों (घोटुल) के खंबे की मूर्तियाँ,
देवी व झूले, कलात्मक मृतक स्तंभ, तीर धनुष, कुल्हाड़ी आदि पर सुदंर पेड़-पौधे व पशु-पक्षियों के
आकर्षक आकृतियॉ देखी जा सकती हैं। गाड़ी के पहिए, चौखट, खिड़कियों के पाट आदि काष्ठ कला के श्रेष्ठ नमूने हैं। |
प्रदेश में
बस्तर का प्राकृतिक कोसा (टसर) उत्पादन में प्रथम स्थान हैं। प्रदेश में
जगदलपुर में मात्र एक ऐसा टसर वस्त्र उत्पादन व बुनाई केन्द्र हैं जहॉ
कोसे का धागाकरण, बुनाई,
धुलाई, रंगाई, छपाई आदि सभी प्रक्रियाएँ एक साथ सम्पन्न होती हैं। बस्तर के आदिवासी कोसा
कढ़ाई व बुनाई में निपुण हैं। |
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बांस जनजातीय
जीवन एवं संस्कृति से जुड़ा महत्वपूर्ण वनोपज हैं। बांस से बनी उत्कृष्ठ दैनिक
उपयोगी व सजावटी वस्तुएँ बस्तर, सरगुजा व रायगढ़ के परम्परागत् कलाकार करते हैं। बांस से
बनने वाली सामान्यतः दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली ये वस्तुएँ अत्यंत
सौंदर्यपरक व आकर्षक होती हैं। |
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छत्तीसगढ़ की
कुछ प्रमुख जनजातियाँ प्राचीन काल से ही धातु कलाओं का प्रयोग मूर्तियों, हथियारों, सजावटी वस्तुओं आदि के निर्माण हेतु करतीं आ रहीं
हैं। छत्तीसगढ़ की इन्ही कुछ जनजातियों में बस्तर के "घड़वा",
सरगुजा के "मलार" नामक जाति तथा
रायगढ़ जिले की "झारा" आदि विशेष रूप से विख्यात हैं। ये
प्राचीनकाल से लेकर आज भी यह कार्य कर रहे हैं। |
मिट्टी शिल्प
का प्रत्यक्ष उदाहरण छत्तीसगढ़ के प्रसिद्घ "पोला पर्व"
मे देखा जा सकता हैं। जिसमें बच्चे मिट्टी के बने बर्तनों व खिलौनों से
खेलते हैं तथा मिट्टी के पहिए लगे हुए बैलों को चलाते हैं। आदिकाल से ही मानव
मिट्टी का प्रयोग गृह निर्माण, चूल्हे, बर्तन इत्यादि
के निर्माण में करता आया है। मानव ने सबसे पहले मिट्टी के बर्तन बनाए थे। |
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पत्ता शिल्प के
कलाकार मूलतः झाडू बनाने वाले होते हैं। ये छिन्द के पत्तों से
कलात्मक खिलौने, चटाई,
आसन, दुल्हा-दुल्हन के मौड़(मौर), साज-सज्जा की वस्तुएँ इत्यादि बनाते हैं। यह कला मुख्यतः
बस्तर, सरगुजा, रायगढ़ व राजनांदगांव में देखने को मिलती हैं। |
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छत्तीसगढ़, देश का एक आदिवासी बहुल राज्य है,
यहाँ की जनजातियाँ ही राज्य की
अपनी पृथक सांस्कृतिक पहचान के लिए पर्याप्त हैं। यहाँ विभिन्न जनजातियों की अपनी
पृथक परंपराएँ,
खानपान, लोकगीत, त्यौहार व अपने विशिष्ठ नृत्य शैलियाँ हैं, जिनसे इन जनजातियों को पृथक रूप से पहचाना जा
सकता है। |
बस्तर जिले के
आदिवासियों का एक प्रमुख नृत्य "गौर नृत्य" है, जिसे यहाँ के आदिवासी "जात्रा" नामक
वार्षिकोत्सव के समय करते हैं। इस नृत्य का नाम गौर नृत्य इसलिए पड़ा क्योंकि इस
नृत्य को करते समय माड़िया नर्तक अपने सिर पर गौर नामक जंगली पशु के
सींगों को अपने सिर पर धारण करते हैं। ये आदिवासी इन सींगों से बने हुए मुकुट
को कौड़ियों से सजाते हैं। नृत्य में भाग लेने वाली नर्तकियाँ अपने सिर पर
पीतल का मुकुट धारण करतीं हैं। |
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करमा नृत्य मनुष्य को
"कर्म" करने की प्रेरणा देता है। यह नृत्य आदिवासियों व ग्रामीणों के
कठोर वन्य जीवन, ग्रामों की
कृषि संस्कृति एवं श्रम पर आधारित है। |
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यह बस्तर के
मुड़िया आदिवासियों का प्रमुख नृत्य है। मुड़िया आदिवासियों की एक विशेष
सामाजिक संगठन "घोटुल" है, जो इन आदिवासी युवाओं के लिए सामाजिक व्यवहार, परंपरा और कला के प्रशिक्षण केसाथ प्रेम
की अभिव्यक्ति के अकृत्रिम खुले अवसर प्रदान करता है। |
दोरला नृत्य
बस्तर की एक आदिवासी जनजाति करती है। इस जनजाति का नाम भी "दोरला" है और इसी के
नाम पर इस नृत्य का नाम "दोरला नृत्य" पड़ा। यह जनजाति अपने विभिन्न
पर्वों, त्यौहारों व
विवाहोत्सवों में अपनें इस पारंपरिक नृत्य का प्रदर्शन करती है। |
यह छत्तीसगढ़ के
बस्तर जिले के 'धुरुवा'
आदिवासियों का एक प्रमुख नृत्य है,
जिसमें नर्तक श्वेत लहंगे, सलूखा और आकर्षक पगड़ी पहनते हैं। जिसको
ये मोर मुकुट से सजाते हैं। इनकी धोतियाँ, जिसे ये पाग कहते हैं, उसका पिछला हिस्सा एड़ियों तक झूलता रहता है। स्त्रियाँ
सफेद साड़ी, माथे पर पट्टा
व पैरों में घुंघरुओं के साथ कतारबद्ध होकर नृत्य करतीं हैं। |
दमनच नृत्य
छत्तीसगढ़ की एक अत्यंत पिछड़ी हुई जनजाति "पहाड़ी कोरवा" द्वारा किया
जाता है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा इसे अत्यंत पिछड़ी जनजातियों की श्रेणी में
रखा गया है। |
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छत्तीसगढ़ लोकोक्तियों से अधिक छत्तीसगढ़ी मुहावरों में व्यंजना शक्ति निहित है। लोकोक्ति या कहावतें या छत्तीसगढ़ी हाना में अनुभव वृद्ध लोगों द्वारा कही हुई अनोखी या महत्व की बात है, जो कहते-कहते कहावत बन जाती है। इसके पीछे कोई न कोई कथा अवश्य होती है, जिसे हामी या हुंकार देने वाला हाँ-ना कहते हुए सुनता है। तो कोई पद रचना अपने अभिधार्थ को छोड़कर किसी अर्थ को व्यक्त करती हैं, मुहावरे कहलाती हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में हाना तुक और विशेष ध्वनि-ध्वन्यात्मकता के साथ चमत्कार पैदा करते हैं। |
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छत्तीसगढ़ी भाषा में मुहावरों का अपना महत्व है। जिसमें सामाजिक रीति, नीति, प्रथा, परंपरा, दर्शन आदि का विवेचन मिलता है। ये मुहावरे अत्यंत सारगर्भित व संक्षिप्त किंतु अपने में अत्यंत गहन भावों व शिक्षा को सहेजे होतीं हैं। मुहावरों के प्रयोग से भावाभिव्यक्ति में सहजता व आकर्षण आ जाता है। जो कि छत्तीसगढ़ी भाषा की समृद्धि को दर्शातीं है। जैसेः- |
(1). खटिया म पचना |
- असाध्य रोगी होना । |
(14). दांत निपोरना |
- लज्जित होना |
(2). खटिया उसलना |
- मर जाना । |
(15). लोटा धरना |
- निराश होना । |
(3). आगी देना |
- दाह संस्कार करना । |
(16). छेरिया होना |
- बकवास करना । |
(4). पंचलकरिया देना |
- दाह कर्म में सहयोग देना । |
(17). खर नई खाना |
- सह नहीं सकना । |
(5). लोटा थारी बेचना |
- गरीबी में बर्तनभांडे बिक जाना |
(18). हुंरिया देना |
- ललकारना । |
(6). दोखहा बरा खाना |
- मृतक भोज में बड़ा खाना । |
(19). गोड़ किटकना |
- किसी के द्वारा याद करना । |
(7). पागा-बांधना - |
पगड़ीरस्म में जिम्मेदारी सौंपना |
(20). चांउर छींछना |
- जादू करना , त्याग करना । |
(8). करेज्जा दिखाना |
- पूरी तरह पीड़ित होना । |
(21). एती ओती करना |
- रफा दफा करना, बकवास करना । |
(9). भाग पराना |
- भाग जाना । |
(22). तुतारी कोंचना |
- पीछे पड़ जाना । |
10). आंसू ढ़ारना |
- रोने का अभिनय करना । |
(23). ठेठरी होना |
- सूखकर कांटा होना । |
(11). अरई लगाना |
- हाथ धोकर पीछे पड़ जाना । |
(24). आगी म मूतना |
- अन्याय करना । |
(12). छानी में होरा भूंजना |
- अत्याचार होना । |
(25). बोरा म तेल लालना |
- मूर्खता करना । |
(13). चुचुवा के रहना |
- निराश होना । |
(26). कठवा के बइला |
- मूर्ख । |
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छत्तीसगढ़ में हजारों कहावते प्रचलित हैं। कहावतों का शाब्दिक अर्थ होता है-"कही हुई बातें"। कहावतें किसी समाज के लोगों की हजारों वर्षों के ज्ञान व घनीभूत अनुभवों की रचनाएँ होती हैं। जिलके माध्यम से बड़ी-बड़ी व जटिल भावों व विचारों को बड़ी ही सहजता से व्यक्त किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की कुछ प्रमुख कहावतें इस प्रकार हैं- |
(1). तेली घर तेल होथे, त पहाड़ ल नई पोर्ते । |
(6). करनी दिखै मरनी के बेर । |
(2). जतका के मूड़ नहीं, ततका के मुड़ौवनी । |
(7). जादा मीठा म कीरा परै । |
(3). देह म लत्ता नहीं, जाए बर कलकत्ता । |
(8). मरै म मेछा उखाने । |
(4). टिटही के पेले ले पहार नई पेलाए । |
(9). जिहाँ डौकी सियान, उहाँ मरै बिहान । |
(5). अपन मरै बिना सरग नई दिखै । |
(10). खातु परै त खेती, नहीं त नदिया के रेती । |
जनाउल का छत्तीसगढ़ी भाषा में अर्थ होता है "पहेली"। पहेलियाँ लगभग सभी भाषाओं में पाई जाती है। जिनका उत्तर देने में बड़े से बड़े भी चकरा जाते हैं, क्योंकि पहेली जिसकी ओर इशारा करतीं हैं वे वस्तुएँ प्रत्यक्ष रुप से कभी भी पहेली में प्रकट नहीं होती हैं। पहेली हल करने वाले को केवल सामकेतिक अर्थ पकड़-पकड़कर ही उसका सहीं हल खोजना होता है। पहेलियाँ कभी-कभी गद्य तो कभी-कभी पद्य की शैलियों में होतीं हैं। जनाउल छत्तीसगढ़ी भाषा के समृद्धिकारक, मनोरंजन व ज्ञान के प्रमुख साधन हैं। जैसे - |
(1). पर्रा भर लाई, गगन भर छाई । |
अर्थात् तारे |
(2). पूंछी ल पानी पियै, मुड़ी ह ललियाय । |
अर्थात् दीपक |
(3). रात म गरु, दिन म हरु । |
अर्थात् खटिया |
(4). पांच भाई एकै अंगना । |
अर्थात् हथेली की ऊँगलियाँ |
(5). लात मारे त चिचियाए, कान अइठें त भाग जाए । |
अर्थात् मोटर साइकिल |
(6). काटे ले कटाए नहीं, बोले ले बोंगाए नहीं । |
अर्थात् छाया व पानी दोनों |
(7). घाम म
जनमै, हवा म मुरझाए |
अर्थात् पसीना |
(8). पहाड़ हे,
फेर पथरा नहीं, नदी हे, फेर पानी नहीं |
अर्थात् नक्शा |
(9). दूर देश म
मइके तोर, गाँव-गाँव ससुराल |
अर्थात् बिजली |
(10). दू झन
दुब्बर,घानी के बैल |
अर्थात् घड़ी |
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छत्तीसगढ़ के जनसाधारण का व्यवसाय
कृषि है। अनेक प्रकार के उत्कृष्ठ प्रजाति के धान छत्तीसगढ़ के "धान के कटोरा" नाम को सार्थक करते
हैं। यद्यपि गेंहूं, दाले व तिलहनों का भी
उत्पादन होता है, तथापि
मुख्य उपज धान ही है। |
मछलियाँ भी शौक से खाई जाती है। पहले रात के समय के बचे भात में पानी डालकर, सबेरे बासी खाने का रिवाज है। खमनीकरण के कारण बासी में ऐसे तत्वों का समावेश होता है, जिससे लोग बहुत काम कर सकते थे, पर अब बासी खाने का रिवाज धीरे-धीरे चाय ने ले लिया है। |
यूं तो हर प्रदेश में अपने उत्पादन के अनुसार अलग-अलग पकवान बनते हैं। छत्तीसगढ़ के अधिकांश पकवानों में चांवल का प्रयोग होता है। धुंसका-अंगाकर, चीला-चौंतेला, फरा-अइरसा,देहरौरी केवल चांवल के ही बनते हैं। खुरमीं-पपची में गेहूं एवं चावल के आटे का उपयोग होता है। ठेठरी, करी, बूंदी, बेसन से बनते हैं। भोजों में बरा-सोंहारी (पूरी), तसमई (खीर) बनाई जाती है। छत्तीसगढ़ में महिलाओं के तीन प्रमुख व्रत हैं-तीजा, बेवहा, जूंतिया और भाई-जूंतिया। इन व्रतों में चीला-बिनसा का फरहार बनता है, जिसको सबको खिलाया जाता है। इस प्रकार चीला को यहाँ का प्रमुख पकवान कहा जा सकता है। |
यह तीन प्रकार से बनाया जाता है - सादा चीला, नूनहा चीला(नमकीन) तथा गुरहा चीला(मीठा)। चीला बनाने के लिए चावल रात में भिगाया जाता है। सबेरे पानी निकालकर छाया में सुखाते हैं। फिर ढ़ेकी में पीसकर आटा बनाया जाता है, जिसे सांट कहते हैं। सांट में पानी डालकर घोल बनाते हैं। घोल जितना पतला रहता है, चीला भी उसी अनुपात में पतला होता है। बड़े-मोटे तवे को चूल्हे में रखकर गर्म करते हैं। कपड़ा या रूई को तेल में डुबा कर तवे में घुमाते हैं। तेल लगे तवे के सांट के घोल को कलछी से पतला फैलाते हैं। फिर उसे ढंक देते हैं। कुछ देर बाद ढक्कन निकाल चीला को पलटकर सेंकते हैं। दोनों तरफ सिक जाने पर चीला को थाली में उतार दूसरा चीला ढाला जाता है। |
गर्म पानी में सांट को गूंथते हैं। कभी नमक डाल दिया जाता है, तो कभी बिना नमक के ही गूंथ कर छोटी-छोटी लोई बनाते है। हथेली में तेल लगाकरलोई को फैलाया जाता है। आकार में पूरी से छोटी किन्तु कुछ मोटी होती है। फिर गर्म तेल में छानते हैं। छोटे आकार के कारण एक साथ कई चौंसले छन जाते हैं। इसे पूरी का पूरक कहा जा सकता है। हरेली, पोरा, छेरछेरा आदि में विशेष रूप से बनता है। इसे गुड़ या अचार के साथ खाते हैं। |
फरा दो प्रकार से बनाते हैं। गाँव में जब गन्ने की पेरोई होती है, तब ताजे रस को गर्म करने के लिए रखा जाता है। चावल के आटे को गरम पानी से गूंथकर हथेलियों से पतली बाती के समान बनाकर रखते हैं। उबलते रस में फरा को डालकर पकाते हैं। पक जाना पर इलायची डालते हैं। गन्ने का रस ना रहने पर गुड़ के घोल से भी फरा बनाते हैं। खाने में यह स्वादिष्ठ होता है। नूनहा फरा बनाते समय आटा में नमक डालकर गुंथते हैं। फिर हथेली ते छोटी लोइ को बर कर फरा बना कर रखते हैं। भगोने में पानी उबालने रखते हैं। उस पर चलनी रखते हैं। उबलने पर चलनी में फरा रखकर ढ़ंक देते हैं। दस मिनट बाद फरा भाप में पक जाता है। एक कड़ाही में तेल डाल कर सरसों और मिर्च का बघार लगाकर फरा पर डाल दिया जाता है। अब फरा के खाने के लिए तैयार है। |
छत्तीसगढ़ी पकवानों में सबसे स्वादिष्ठ तथा बनाने में सबसे कठिन है। गुड़ की चासनी बनाते हैं। इसे गरम-गरम ही सांठ में डालकर गूंथते हैं। मुलायम होने पर छोटी-छोटी लोई तोड़कर हथेलियों में फैलाते हैं। छोटी पूरी के आकार का होने पर तिल पर रखते हैं, जिससे एक तरफ तिल चिपक जाता है। फिर उसे तेल में तलते हैं। यद्यपि गुड़ की चासनी का सही पाग बनाना कठिन है, और गर्म चासनी में गूंथना भी काफी कठिन है, पर बनने पर यह बेहद स्वादिष्ठ होता है। |
यह नायाब छत्तीसगढ़ी पकवान है,
जिसे बनाने में दक्षता अपेक्षित
है। इसके लिए चावल को भिगाकर छाया में सुखाया जाता है। फिर ढ़ेकी में या जाता में इसे दरदरा पीसा
जाता है,जिसे दर्रा कहते
है। दर्रा में घी का मोयन डालकर दही में गूंथते हैं। छोटी लोई तोड़कर
हथेलियों में रखते हैं तथा इसे बरा के समान बनाकर तेल में तलते हैं। अब
शक्कर या गुड़ की दो तार की चासनी बनाकर ते हुए देहरौरी को चासनी में डुबाते हैं।
दूसरे दिन तक देहरौरी में रस अच्छी तरह भिद जाता है। गुड़ का देहरौरी अधिक
स्वादिष्ठ होता है। |
तीन भाग गेंहूं आटा तथा एक भाग चावलों के मोटे पिसे आटे के मिश्रण में घी का मोयन किया जाता है। गुड़ का गाढ़ा घोल बनाते हैं। आटा में चिरौंजी, सूखे नारियटल के टुकड़े एवं मूंगफली दाना डालकर कड़ा गूंथते हैं। छोटी लोई बनाकर हाथ की मुठ्ठियों में दबाते हैं। कई लोग लोई को टोकनी से भी दबाते हैं। फिर इन्हें गर्म किए हुए तेल में मंद आंच से पकाते हैं। अच्छी तरह पक जाने पर कड़ाही से निकलते हैं, इस तरह खुरनी तैयार हो जाती है। आज कल तो शक्कर या गुड़ में गुथे आटा को बेल कर चौकोन काटकर तल लेते हैं। |
पपची बनाने में दक्षता की आवश्यकता होती है। तीन भाग गेहूं में एक भाग चावल के आटे के मिश्रण में घी का मोयन डालकर खूब कड़ा आटा गूंथा जाता है। छोटी-छोटी लोई बना पटे से दबा कर गोल, चपटा आकार दिया जाता है। तेल को गर्म कर कुछ ठंडा करते हैं। इसमें पपचियाँ डालकर मंद आंच में तलते हैं। गुड़ या शक्कर की दो तार की चाशनी बनाते हैं। चाशनी को झारे से फेंटकर पपची लपेटकर अलग करते हैं। कुछ देर में चाशनी सूख जाती है। अधिक मोयन और मंद आंच में पकने के कारण यह कुरमुरा और स्वादिष्ठ होता है। शक्कर की अपेक्षा गुड़ से पागने पर अधिक स्वाद आता है। शादी-ब्याह, गवन-पठौनी में बहुत बड़ी पपचियाँ बनतीं हैं। |
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गुझिया ही छत्तीसगढ़ी में कुसली कहलाता है। आटा या मैदा में मोयन डालकर गूंथते हैं। खोया को भूनते हैं। उसमें थोड़ी भुनी हुई सूजी, किसा हुआ नारियल, चिरौंजी और पिसी शक्कर मिलाते हैं। खोया ना मिलने पर कई लोग आटा को भूनकर उसी का भरावन बनाते हैं। बीच में भरावन रखकर दोनों ओर से चिपकाकर कटर से काट लेते हैं। पहले तो हाथ से ही बहुत सुंदर गुजिया बनाई जाती थी। अब तो गुझिया मेकर आ गया है।फिर घी या तेल से तलते हैं। इस प्रकार स्वादिष्ठ कुसली तैयार हो जाती है। |
हिन्दी में इसे बड़ा कहते हैं, जजो कि उड़द दाल से बनता है। इसके लिए छिलके वासी उड़द दाल के भिगा कर धोते हैं। फिर छिलका निकालकर पीसते हैं. नमक, हरी मिर्च, कटा अदरक डालकर पीढ़ी फेंटते हैं। फिर इसकी लोई बनाकर हथेली में गोल बनाकर तेल में तलते हैं। शादी-ब्याह तथा पितर में बड़े अवश्य बनते हैं। बरा को गर्म पानी में डालकर निकालते हैं, फिर दही में डालकर दहीबड़ा बनाते हैं। |
बबरा- |
Ashok Kumar Yadaw
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29/07/2011 2:37 PM
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