Ashok Kumar Yadaw
ASHOK KUMAR YADAW, VILLAGE & POST - DHARAMPURA, TAHSIL & DISTRICT - MUNGELI, STATE – CHHATTISGARH, INDIA, PINCODE – 495334, Mo. No. - 9589197920

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Ashok .

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Ashok Kumar Yadaw

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Jai Hind

Chhattisgarh - Ek Nazar. - AKY


http://tdil.mit.gov.in/ggs/Sanskritik_CG%28HTML%29/Sanskritik_Chhattisgarh/FRONT.HTM

Common phrases

English

Hindi (Transliteration)

Hindi (Devanagari)

Hindi

hindī

हिन्दी

English

angrezī

अंग्रेज़ी

Yes

hān

हाँ

You1

āp (formal)

आप

You²

tum (Informal)

तुम

You³

tū (used intimately, often derogatory)

तू

Your

āpkā (formal)

आपका

Your

tumhārā (Informal)

तुम्हारा

Your

terā (used intimately, often derogatory)

तेरा

Me

main

मैं

My or mine

merā

मेरा

No [13][[File:[14]]]

na

Not

nahī

नहीं

Hi/Hello

namaste

नमस्ते

Goodbye

namaste,

नमस्ते

How are you?

āp kaise hai

आप कैसे हैं?

See you later

phir milege

फिर मिलेंगे

Thank you

dhanyavād,

धन्यवाद

I'm Sorry

kshamā kījiye

क्षमा कीजिये

Why?

kyo?

क्यों?

Who?

kaun?

कौन?

What?

kyā?

क्या?

When?

kab?

कब?

Where?

kahā?

कहाँ?

How?

kaise?

कैसे?

How many?

kitne?

कितने?

I did not understand

main samjhā nahī (For males)

मैं नहीं समझा

Help me (please)
Help me!

meri madad kījiye / sahāyatā kījie!

मेरी मदद कीजिये / सहायता कीजिये

Do you speak English?

kyā āp agrezī bolte hain? (For addressing a male)

क्या आप अंग्रेज़ी बोलते हैं?

Time please?
Time please?

samay kyā huā? / kitne baje hain?

समय क्या हुआ? / कितने बजे हैं?

I do not know

mujhe nahī patā

मुझे नहीं पता

श्रेणी:छत्तीसगढ़

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छत्तीसगढ़ भारत का एक राज्य है और इससे संबंधित साहित्य, संस्कृति, कला, वाणिज्य भूगोल व इतिहास आदि अनेक विषयों के विभिन्न लेखों की सूची इस पृष्ठ पर स्थित है।

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छत्तीसगढ़

भारत के मानचित्र पर छत्तीसगढ़

भारत के प्रान्त

राजधानी

रायपुर

सबसे बड़ा शहर

रायपुर

जनसंख्या

,०७,६९,०००

- घनत्व

१०८ /किमी²

क्षेत्रफल

,३५,००० किमी²

- जिले

१८

राजभाषा(एँ)

हिन्दी

प्रतिष्ठा

१ नवंबर २०००

- राज्यपाल

शेखर दत्त

- मुख्यमंत्री

रमन सिंह

- विधानसभा

[[१]]

आइएसओ संक्षेप

IN-CT

http://www.chhatisgarh.nic.in

छत्तीसगढ़ भारत का एक राज्य है। छत्तीसगढ़ राज्य का गठन १ नवंबर २००० को हुआ था। यह भारत का २६वां राज्य है । भारत में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया - एक तो 'मगध' जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया और दूसरा 'दक्षिण कौशल' जो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण "छत्तीसगढ़" बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। "छत्तीसगढ़" तो वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध के साथ ही अनेकों आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है।

अनुक्रम

[छुपाएँ]

छत्तीसगढ़ का भूगोल

छत्तीसगढ़ का इतिहास

साहित्य

संस्कृति

लोकगीत और लोकनृत्य

खेल

जातियां

जिले

संदर्भ

१० टीका टिप्पणी

११ यह भी देखें

१२ छत्तीसगढ पर्यटन

१३ बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें] छत्तीसगढ़ का भूगोल

भारत मे छत्तीसगढ़ की स्थिति और इसके जिले।

छत्तीसगढ़ के उत्तर और उत्तर-पश्चिम में मध्यप्रदेश का रीवां संभाग, उत्तर-पूर्व में उड़ीसा और बिहार, दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में महाराष्ट्र राज्य स्थित हैं। यह प्रदेश ऊँची नीची पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ घने जंगलों वाला राज्य है। यहाँ साल, सागौन, साजा और बीजा और बाँस के वृक्षों की अधिकता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियाँ एक विशाल और उपजाऊ मैदान का निर्माण करती हैं, जो लगभग 80 कि.मी. चौड़ा और 322 कि.मी. लम्बा है। समुद्र सतह से यह मैदान करीब 300 मीटर ऊँचा है। इस मैदान के पश्चिम में महानदी तथा शिवनाथ का दोआब है। इस मैदानी क्षेत्र के भीतर हैं रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर जिले के दक्षिणी भाग। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। मैदानी क्षेत्र के उत्तर में है मैकल पर्वत शृंखला। सरगुजा की उच्चतम भूमि ईशान कोण में है । पूर्व में उड़ीसा की छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ हैं और आग्नेय में सिहावा के पर्वत शृंग है। दक्षिण में बस्तर भी गिरि-मालाओं से भरा हुआ है। छत्तीसगढ़ के तीन प्राकृतिक खण्ड हैं : उत्तर में सतपुड़ा, मध्य में महानदी और उसकी सहायक नदियों का मैदानी क्षेत्र और दक्षिण में बस्तर का पठार। राज्य की प्रमुख नदियाँ हैं - महानदी, शिवनाथ, खारुन, पैरी , तथा इंद्रावती नदी[१]

[संपादित करें] छत्तीसगढ़ का इतिहास

मुख्य लेख : रामायणकालीन छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश, कालान्तर में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया था इसी का 'दक्षिण कोशल' वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के महानदी (जिसका नाम उस काल में 'चित्रोत्पला' था) का मत्स्य पुराण[क], महाभारत[ख] के भीष्म पर्व तथा ब्रह्म पुराण[ग] के भारतवर्ष वर्णन प्रकरण में उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट विवरण है। स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।

इतिहास में इसके प्राचीनतम उल्लेख सन 639 ई० में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्मवेनसांग के यात्रा विवरण में मिलते हैं। उनकी यात्रा विवरण में लिखा है कि दक्षिण-कौसल की राजधानी सिरपुर थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम सिरपुर (श्रीपुर) में ही था। इस समय छत्तीसगढ़ पर सातवाहन वंश की एक शाखा का शासन था। महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है। प्राचीन काल में दक्षिण-कौसल के नाम से प्रसिद्ध इस प्रदेश में मौर्यों, सातवाहनों, वकाटकों, गुप्तों, राजर्षितुल्य कुल, शरभपुरीय वंशों, सोमवंशियों, नल वंशियों, कलचुरियों का शासन था। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंशो का शासन भी कई जगहों पर मौजूद था। क्षेत्रिय राजवंशों में प्रमुख थे: बस्तर के नल और नाग वंश, कांकेर के सोमवंशी और कवर्धा के फणि-नाग वंशी। बिलासपुर जिले के पास स्थित कवर्धा रियासत में चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल भी कहा जाता है। इस मंदिर में सन् 1349 ई. का एक शिलालेख है जिसमें नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है। नाग वंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था। इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं। भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व 14 वीं सदी तक कायम रहा।

[संपादित करें] साहित्य

मुख्य लेख : छत्तीसगढ के प्रमुख साहित्यकार

छत्तीसगढ़ साहित्यिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में अति समृद्ध प्रदेश है। इस जनपद का लेखन हिन्दी साहित्य के सुनहरे पृष्ठों को पुरातन समय से सजाता-संवारता रहा है। श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक "प्राचीन छत्तीसगढ़" में बड़े ही रोचकता से लिखते है। [२] छत्तीसगढ़ी और अवधी दोनों का जन्म अर्धमागधी के गर्भ से आज से लगभग 1080 वर्ष पूर्व नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ था।"[३]

मुख्य लेख : छत्तीसगढ़ी साहित्य

भाषा साहित्य पर और साहित्य भाषा पर अवलंबित होते है। इसीलिये भाषा और साहित्य साथ-साथ पनपते है। परन्तु हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य के विकास अतीत में स्पष्ट रुप में नहीं हुई है। अनेक लेखकों का मत है कि इसका कारण यह है कि अतीत में यहाँ के लेखकों ने संस्कृत भाषा को लेखन का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ी के प्रति ज़रा उदासीन रहे।इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में जो साहित्य रचा गया, वह करीब एक हज़ार साल से हुआ है।

अनेक साहित्यको ने इस एक हजार वर्ष को इस प्रकार विभाजित किया है :

यह विभाजन किसी प्रवृत्ति की सापेक्षिक अधिकता को देखकर किया गया है।एक और उल्लेखनीय बत यह है कि दूसरे आर्यभाषाओं के जैसे छत्तीसगढ़ी में भी मध्ययुग तक सिर्फ पद्यात्मक रचनाएँ हुई है।

[संपादित करें] संस्कृति

आदिवासी कला काफी पुरानी है। प्रदेश की आधिकारिक भाषा हिन्दी है और लगभग संपूर्ण जनसंख्या उसका प्रयोग करती है। प्रदेश की आदिवासी जनसंख्या हिन्दी की एक उपभाषा छत्तीसगढ़ी बोलती है।

[संपादित करें] लोकगीत और लोकनृत्य

मुख्य लेख : छत्तीसगढ़ के लोकगीत और लोकनृत्य

छत्तीसगढ़ के गीत दिल को छु लेती है यहाँ की संस्कृति में गीत एवं नृत्य का बहुत महत्व है। इसीलिये यहाँ के लोगों में सुरीलीपन है। हर व्यक्ति थोड़े बहुत गा ही लेते है। और सुर एवं ताल में माहिर होते ही है। यहां के गीतों में से कुछ हैं:

[दिखाएँ]

दर्शन वार्ता बदलें

छत्तीसगढ़ के लोकगीत


भोजली पंडवानी जस गीत भरथरी लोकगाथा बाँस गीत गऊरा गऊरी गीत सुआ गीत छत्तीसगढ़ी प्रेम गीत देवार गीत करमा छत्तीसगढ़ी संस्कार के गीत

छत्तीसगढ़ के लोकगीत में विविधता है, गीत अपने आकार में छोटे और गेय होते है। गीतों का प्राणतत्व है भाव प्रवणता। छत्तीसगढ़ी लोकभाषा में गीतों की अविछिन्न परम्परा है।छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीतों है - सुआगीत, ददरिया, करमा, डण्डा, फाग, चनौनी, बाँस गीत, राउत गीत, पंथी गीत।

सुआ, करमा, डण्डा, पंथी गीत नाच के साथ गाये जाते है।

सुआ गीत करुण गीत है जहां नारी सुअना (तोता) की तरह बंधी हुई है। इसालिए अगले जन्म में नारी जीवन पुन न मिलने ऐसी कामना करती है। सुआ का अर्थ होता है मिट्ठू या तोता । सुआगीत नारियों और मुख्य रुप से गोड़ आदिवासी नारियों का नाच गीत है । नारियाँ दीपावली के अवसर पर आंगन के बीच में पिंजरे में बंद हुआ सुआ को प्रतीक बनाकर (मिट्टी का तोता) उसकेचारो ओर गोलाकार वृत्त में नाचती गाती जाती हैं। एक छोटी टोकरी जिसे चुरकी या दौरी कहा जाता है में धान भरकर, धान के उपर मिट्टी से बनाये, हरे रंग से चित्रित सुआ प्रतिस्थापित कर दिया जाता है । नारियाँ चुरकी के चारों ओर मंडलाकार खड़ी हो जाती है । फिर नीचे झुककर क्रमशः एकबार दाहिनी ओर दूसरी बार बायीं ओर ताली बजाती है । साथ ही उसी तरफ दाहिनी तथा बांया पैर भी उठा-उठाकर रखती है । एक टोली गाना गाती है । दूसरी टोली उस गीत को दोहराती है । तालियां बजाकर गायें जाने वाले इस गीत के साथ ककिसी विशेष वाद्य की आवश्यकता नहीं होती है ।

छेरछेरा पुन्नी और होली पर गांव में घर-घर और चौपाल में डंडा नाच कर रुपये-चांवल मांकते हैं । इस गीत के साथ जो गीत गाये जाते है । उसे डंडा गीत कहते है । डंडा नाच केवल पुरुषों का नृत्य है, वर्षा काल के फसल कट जाने पर ही यह नृत्य प्रारम्भ होता है । इसके लिए लगभग 2 - 5 युवकों की टोली होती है । ये रंग बिरंगे वस्त्र धारण कर मयूर पंख आदि से अपना श्रृंगार करते हैं । प्रत्येक युवक के हाथ में लगभग आधी मीटर के लंबाई के डंडे रहते है । गोल घेरे रहकर नृत्य प्रारंभ होता है, घेर के मध्य में अगूवा तथा वाद्य मंडली वाले रहते है । राग, ताल एवं लय पर नर्तक के पग थिरक उठ पड़ते है, तथा कुछ समय के अन्तर पर वे सब एक दूसरे डंडे पर प्रहार करते है । नृत्य के आधे गीत को एक व्यक्ति गाते है, तथा अन्य उसे दोहराते है । नृत्य की गति परिवर्तन अगूवा की हुकारु मारना (अ.हू.ई.की ध्वनि) से होता है। इस अवसर पर मांदर, झांझ आदि उपयोग में लाये जाते है । अगुवा जितने बार कुई-सुई की हॉक लगाता है , भीतर के नर्तक बाहर और बाहर के नर्तक भीतर, नाचते कूदते भीतर-बाहर होते हैं । नाचने में पांव को पूरे जमीन पर रखने के साथ पहले दाहिने पांव पिंडली तक उठाते हैं, फिर बायॉं पॉंव |

अट्ठारह दिसम्बर से याने सतनाम परंपरा के संस्थापक बाबा घासीदास जी के जन्म दिवस से पंथी नाच गांव-गांव में होते देखे जा सकते हैं । यह मुख्य रुप से पुरुषों का नाच है 15 या 20 पुरुषों की एक टोली होती है । जो गोल घेरे में नाचते हैं और गीत गाता है जिसे अन्य कलाकार दोहराते हैं और नाचते हैं । इसके प्रमुख वाद्य मांदर तथा झांझ है । मांदर में थाप होता है - धिन-ना, धिन-ना, ता-धिन गीत के बोल प्रारंभ होते हैं -

बाबा घासीदास हो, बाबा घासीदास

नर्तक दल पैर के पंजों को बारी-बारी मंद गति से घुंघरु बजाते हैं । गीत की पंक्तियां द्रुत होती हैं । मांदर के बोल गति लेते हैं । नर्तक दल कमर पर रखो हाथों को सामने कर आगे-पीछे करते सिर हिलाते पहले पंक्तिबद्ध, वृत्ताकार, अर्द्धचंद्राकार, पिरामीड बनाते धरती में पीठ के बल लेटकर, घुटने टेककर नाचते हैं । नृत्य की बानगी, लयात्मकता के साथ इस भांति एकाकार हो उठता है कि दर्शक घुंघरु और मांदर में भिन्नता तो कर ही नहीं पाता |

मड़ई राऊत गीत दिपावली के समय गोवर्धन पूजा के दिन, कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक राऊत जाति के द्वारा गाया जाने वाला गीत है। यह वीर-रस से युक्त पौरुष प्रधान गीत है जिसमें लाठियो द्वारा युद्ध करते हुए गीत गाया जाता है। इसमें तुरंत दोहे बनाए जातें हैं और गोलाकार वत्त में धूमते हुए लाठी से युद्ध का अभ्यास करते है। सारे प्रसंग व नाम पौराणिक से लेकर तत्कालीन सामजिक / राजनीतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए पौरुष प्रदर्शन करते है। रावत जाति का आराध्य कछान है । गांव के गौ-चरवाहे की पहचान रावत जाति देवोत्थान एकादशी को अपने कछान देव की आराधरन कर गांव के पशुओं के दुधारु, स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना करता है और फिर जितने गांव के दुधारु गाय होते हैं उनमें सुहाई-फ्लाश की जड़ी की माला बांधते है । इस आशीर्वाद के साथ कि -

धन गोदानी भुइयां पावीं, पावीं हमर असीस,

नाती पूत ले घर भर जावे, जीवी लाख बरीस

चार महीना गाय चरायेन, खायेन मही के झोर,

आइस कार्तिक महिना लक्ष्मी, घूटेन तो बिहोर ।

रावत मड़ई के लिए विशेष सजते हैं - सिर पर लंबे धोती का रंगीन पगड़ी बांधते हैं । पगड़ी को सजाते हैं । मुंह में हल्दी, मुरदार शंख, पाउडर और चिकमिकी लगाते हैं । शरीर में रंगीन रावत बन्डी के उपर कौड़ियों से गूंथा जाकिट पहनते हैं । जाकिट में कौड़ियों की लंबी रस्सीनुमा झूल होते हैं । रंगीन धोती को घुटने तक पहनते हैं । घुंघरु के साथ पदवस्त्रा धरण करते हैं । रावत मड़ई के पूर्व सजे-धजे चितैरे दिखते हैं । नृत्य - ढोल का गद लगता है- ढि चांग, ढि चांग- रावत इसके स्वर में हो-हो-रे...ओ...का आवाज करता है, वात्य थम जाते हैं । रावत अपना दोहा सुनाता है -

ओलकी-कोलकी गाय चरावें, गाय के सिंग भारी ।

मालिक के घर जोहारे लागें, फुटहा कनौजी म बासी ।

दोहे के साथ ढोल ढि चांग, ढि चांग बजता है । मोहरी अपनी ताल भरता है । निसान गद देता है । झांझ झोंपा-झोंपा का ताल भरता है और रावत जो उसके दाहिने हाथ में होता है - जिस पर विभिन्न प्रकार के फूल और वनोपज के श्रृंगार होते हैं । उठा कर नाचता है । रावतों के बायें हाथ में ढाल होता है । इस ढाल में दो घंटियां होती हैं जो खड़-खड़ का आवाज करते हैं और दोहा के समय रावत इसे बजा कर अपनी बानगी रखता है ।

फसल घर में आने के बाद देवताओं के प्रति आभार एवं कृतज्ञता ज्ञापन भारतीय पारंपरिक धरोहर है । गौरा के माध्यम से गांव के सभी मान्य देव-देवियों को गौरा के द्वारा सम्मानित करते हैं । गौरा के दो रुप छत्तीसगढ़ में है । बइठ गौरा और ठाढ़ गौरा । पुरुष प्रधान लोक-नृत्य में ठाढ़ गौरा का प्रचलन है । इसमें पूजा-प्रणाली, फूल कूटना, देवता भरना, माटी कोड़ना, मूर्ति बनाना, बारात, परधनी, सेवा और विसर्जन के सभी अंग समान रुप से संपादित होते हैं । ठाढ़ गौरा में गेयता नहीं होती । वाद्य में भिन्नता होती है । वाद्य-ढोल - बीजा के गोले की खोखला जिसके दोनों सिरों पर चमड़ा होता है । बांयें भाग को लकड़ी से और दाहिने को हाथ से बजाते हैं । झांझ, निसान ।

[संपादित करें] खेल

छत्तीसगढ़ी बाल खेलों में अटकन-बटकन लोकप्रिय सामूहिक खेल है । इस खेल में बच्चे आंगन परछी में बैठकर, गोलाकार घेरा बनाते है । घेरा बनाने के बाद जमीन में हाथों के पंजे रख देते है । एक लड़का अगुवा के रुप में अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उन उल्टे पंजों पर बारी-बारी से छुआता है । गीत की अंतिम अंगुली जिसकी हथेली पर समाप्त होता वह अपनी हथेली सीधीकर लेता है । इस क्रम में जब सबकी हथेली सीधे हो जाते है, तो अंतिम बच्चा गीत को आगे बढ़ाता है । इस गीत के बाद एक दूसरे के कान पकड़कर गीत गाते है -

अटकन बटकन दही चटाकन, लउहा लाटा बन में कांटा ।

तुहुर तुहुर पानी गिरय, सावन म करेला फूटय ।

चल चल बेटी गंगा जाबो, गंगा ले गोदाओरी ।

पाका पाका बेल खाबो, बेल के डार टूटगे,

भरे कटोरा फूटगे ।।

शेष खिलाड़ी -

अतल के रोटी पतल के धान, एकर लंगड़ी धर बुची कान ।

गीत के साथ एक दूसरे का कान धरते है और पुनः गीत गाते है -

कऊ-मेऊ मेकरा के जाला, फूटगे कोहनि के आला ।

फुगड़ी बालिकाओं द्वारा खेला जाने वाला फुगड़ी लोकप्रिय खेल है । चार, छः लड़कियां इकट्ठा होकर, ऊंखरु बैठकर बारी-बारी से लोच के साथ पैर को पंजों के द्वारा आगे-पीछे चलाती है । थककर या सांस भरने से जिस खिलाड़ी के पांव चलने रुक जाता है वह हट जाती है - नाच के साथ निम्न गीत गाती है -

गोबर दे बछरु गोबर दे, चारो खूंटा ला लीपन दे ।

अपन खये गूदा गूदा, मोला देथे बीजा ।।

ए बीजा ला का करबो, रइ जाबो तीजा ।

तीजा के बिहान दिन, सर्र सर्र ले लुगरा ।।

हेर दे भवजी, कपाट के खीला, केंव-केंव नरियाही मंजूर के पीला ।

पाके बुदलिया राजा घर के पुतरी, खेलन दे फुगरी, फुगरी के फुन-फुन ।।

फुन-फुन के साथ बालिकाएं अपने पैरों को दांया बांया, आगे-पीछे सरकाती हुई खेलती है । फुगड़ी के बीच में निम्न गीत गाती है -

बेल आई बेल आई कोन्हा म छबील बाई ।

मारेन मुटका, हेराबोन तल, पतरंगी छूटगे, छुवैया गंड़ी मोर ।

फुगड़ी खेलते समय जिस बालिका का हाथ जमीन को छूं जाता है, तब खिलाड़ी गाती है -

भरे कराही, भर गे, हरही टूटी हटगे, फुगरी रे फुन-फुन-फुन ।।

लंगड़ी यह वृद्धि चातुर्थ और चालाकी का खेल है । यह छू छुओवल की भांति खेला जाता है । इसमें खिलाड़ी एंडी मोड़कर बैठ जाते है और हथेली घुटनों पर रख लेते है । जो बच्चा हाथ रखने में पीछे होता है बीच में उठकर कहता है -

चुन चुन मुंदरी

खिलाड़ी बच्चे जवाब देते है -

ए खर चंदी गांव दे ।

इसके बाद खड़ा होने वाला खिलाड़ी अपनी आंख मूंद लेता है और बैठे बच्चों में से कोई एक उसके सिर को छूता है । आंख खोलकर खड़ा बच्चा उसके सिर को छूने वाले की पहचान करता है, पहचान कर लेने पर एक टांग से छूने वाले को मारने के लिए दौड़ाता है । छू लेने पर उसकी जगह वह बैठ जाता है और भागने वाला खिलाड़ी खड़ा हो जाता है । लंगड़ी दौड़ाने वाले बच्चे को अन्य चिढ़ाते है गा कर -

मोर चिरइया के गोड़ टूटगे, कहां लेगी, सरोय बर ।

बने रहीस त कौनो नी सके, संगवरी हरोय बर ।।

भौंरा भौंरा चलाते समय खिलाड़ी गाते है -

लांवर म लोट लोट, तिखुर म झोर झोर ।

हंसा करेला पान, राम झुम बांस पान ।

सुपली म बेल पान, लठर जा रे मो भंवरा ।

मुन्नर जी रे मोर भंवरा ।।

खुडुवा (कबड्डी) खुड़वा पाली दर पाली कबड्डी की भांति खेला जाने वाला खेल है । दल बनाने के इसके नियम कबड्डी से भिन्न है । दो खिलाड़ी अगुवा बन जाते है । शेष खिलाड़ी जोड़ी में गुप्त नाम धर कर अगुवा खिलाड़ियों के पास जाते है - चटक जा कहने पर वे अपना गुप्त नाम बताते है । नाम चयन के आधार पर दल बन जाता है । इसमें निर्णायक की भूमिका नहीं होती, सामूहिक निर्णय लिया जाता है । खेल के साथ गीत गाते है-

खूटी के आल पाल, खाले बीरा पान ।

आमा लगे अमली, बगइचा ले झोर ।।

उतर बेंदरा, खोंधरा ला टोर ।

तुवा के तुतके, झपके बुंदरु के ।।

बिच्छी के रेंगना, बूंग बाय टेंगना ।

राहेर के तीन पान, देख लेबों दिनभान ।।

चल कबड्डी आन दे, तबला बजावन दे ।

जो पाली प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाते तब विजेता पाली गा कर जवाब देता है-

खुड़वा डुडुवा नागर के हरई

भेंलवा उधवा, सुकुवा पहाती

मारें मुटका, फुटे बेल

तीन टुटुवा तिल्ली के तेल

डांडी पौहा डांडी पौहा गोल घेरे में खेला जाने वाला स्पर्द्धात्मक खेल है । गली में या मैदान में लकड़ी से गोल घेरा बना दिया जाता है । खिलाड़ी दल गोल घेरे के भीतर रहते है । एक खिलाड़ी गोले से बाहर रहता है । खिलाड़ियों के बीच लय बद्ध गीत होता है । गीत की समाप्ति पर बाहर की खिलाड़ी भीतर के खिलाड़ी किसी लकड़े के नाम लेकर पुकारता है । नाम बोलते ही शेष गोल घेरे से बाहर आ जाते है और संकेत के साथ बाहर और भीतर के खिलाड़ी एक दुसरे को अपनी ओर करने के लिए बल लगाते है, जो खींचने में सफल होता वह जीतता है । अंतिम क्रम तक यह स्पर्द्धा चलता है । गीत इस प्रकार है -

एकल - क करुं कूं

समूह - काकर कुकरा

स. - राजा के

ए - का चारा

एकल - कनकी कोंढ़ा

समूह - ढील दूहु ता

ए. - राजा ल बता दुहुं ता

समूह - डांडी पोहा

स. - काकर मुंड झउहा

ए. - ..... (खोरु)

स - काकर नाव

ए. - ...... (वरन्) के

और बल आजमाइस प्रारंभ हो जाता है ।

डंडा पचरंडा गौ चराते समय व्यतीत करने के लिए लकड़ी से खेलते है ।

[संपादित करें] जातियां

मुख्य लेख : छत्तीसगढ़ की जातियाँ

इन्हें भी देखें: छत्तीसगढ़ के उत्सव , छत्तीसगढ़ के आदिवासी देवी देवता , छत्तीसगढ़ का खाना, एवं छत्तीसगढ़ के मेले







Ashok Kumar Yadaw

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