Ashok Kumar Yadaw
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Ashok Kumar Yadaw

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Jai Hind

Chhattisgarh - Ek Nazar1 - AKY.


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कवर्धा जिलाकांकेर जिला (उत्तर बस्तर) • कोरबा जिलाकोरिया जिलाजशपुर जिलाजांजगीर-चाम्पा जिलादन्तेवाड़ा जिला (दक्षिण बस्तर) • दुर्ग जिलाधमतरी जिलाबिलासपुर जिलाबस्तर जिलामहासमुन्द जिलाराजनांदगांव जिलारायगढ जिलारायपुर जिलासरगुजा जिला

[संपादित करें] संदर्भ

  1. छत्तीसगढ़ (एचटीएम)। टीडीआईएल। अभिगमन तिथि: 16 अप्रैल, 2008
  2. " छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है " (पृ 21,प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय, 1973 )। "
  3. डा. भोलानाथ तिबारी, अपनी पुस्तक " हिन्दी भाषा" में लिखते है - " छत्तीसगढ़ी भाषा भाषियों की संख्या अवधी की अपेक्षा कहीं अधिक है, और इस दृ से यह बोली के स्तर के ऊपर उठकर भाषा का स्वरुप प्राप्त करती है।"

[संपादित करें] टीका टिप्पणी

क. ^ "मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।"
मत्स्यपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 50/25)

ख. ^ "चित्रोत्पला" चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्।।"
- महाभारत - भीष्मपर्व - 9/34

ग. ^ "चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी।।"
ब्रह्मपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 19/31)

[संपादित करें] यह भी देखें

[संपादित करें] छत्तीसगढ पर्यटन

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान

[संपादित करें] बाहरी कड़ियाँ

साँचा:भारत

"http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A4%A2%E0%A4%BC" से लिया गया

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छत्तीसगढ़ भाषाई और सांस्कृतिक विविधता,जनजातीय बहुलता और सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से समृद्ध होने के कारण ऐतिहासिक काल से ही विशिष्ट रहा है। विश्व के जनजातीय मानचित्र में अफ्रीका के बाद भारत में जनजातीय जनसंख्या की बहुलता है। "धान के कटोरा" कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ अंचल मध्यप्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2000 के द्वारा मध्यप्रदेश से पृथक होकर 1-नवंबर 2000 को भारतीय संघ का 26-वां राज्य बना। सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना करने वाले व्यक्ति थे- विद्वान, साहित्यकार, हरिजन सेवक, स्वतंत्रता सेनानी पण्डित सुंदरलाल शर्मा। जिन्होंने अपनी पाण्डुलिपी में छत्तीसगढ़ राज्य का स्पष्ट रेखाचित्र खींचते हुए इसे इस प्रकार परिभाषित किया है- " जो भू-भाग उत्तर में विंध्याचल व नर्मदा



से दक्षिण की ओर इन्द्रावती व ब्राहमणी तक है, जिसके पश्चिम में वेनगंगा बहती है और जहाँ पर गढ़ नामावाची ग्राम संञा है,जहाँ पर सिंगबाजा का प्रचार है, जहाँ स्त्रियों का पहनावा प्रायः एक वस्त्र है तथा जहाँ धान की खेती जोती है वही भूमि छत्तीसगढ़ है।" साहित्य में "छत्तीसगढ़" शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 15-वीं शताब्दी में खैरागढ़ के राजा लक्ष्मीनिधि राय के चारण कवि "दलराम राव" द्वारा 1497 ई0 में किया जाना प्राप्त होता है।



कायल-नेट सेंटर, गुरू घासीदास वि. वि, बिलासपुर
परियोजना, सूचना संचार एवं तकनीकि मंत्रालय


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छत्तीसगढ़ भाषायी और सांस्कृतिक विविधता वाला प्रदेश बहुलता और ग्रामीण संस्कृति है।विश्व में अफ्रीका के बाद भारत में जनजातियों की संख्या सर्वाधिक है,लगभग(8.01 करोड़)छत्तीसगढ़ में राज्य की जनसंख्या (2,07,95,956)का लगभग 32.45 प्रतिशत् हिस्सा (एक तिहाई जनसंख्या) जनजातियों की है। इनकी प्रजातियाँ मूल द्रविड़, प्रोटो आस्ट्रेलायड, वेड्डायड और नीग्रीटो माने जाते हैं।

सम्पूर्ण राज्य के लगभग सभी कोने पर इन जनजातियों का विस्तार पाया जाता है, तथापि प्रदेश की जनजातीय संकेद्रण को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता हैं -

(अ) उत्तरी क्षेत्र --> इस क्षेत्र के अंतर्गत जशपुर , सरगुजा, कोरबा , रायगढ़, कोरिया , बिलासपुर, जाँजगीर, चांपा जिले सम्मिलित हैं। जिसमें से - * सरगुजा और जशपुर में -- कोरबा, बिरहोर, खेरवार, उरॉव, बिंझवार, कोडार, मैना प्रमुख हैं।


* सरगुजा और रायगढ़ में -- सर्वाधिक आदिम जनजाति "कोरवा" रहती है । जो कि "पहाड़ी कोरवा" के नाम से प्रसिद्घ हैं। * रायगढ़ में -- बिंझवार जनजाति की प्रमुखता है। * बिलासपुर में -- मैना जनजाति की प्रमुखता है।

(ब) मध्य क्षेत्र --> इस क्षेत्र के अंतर्गत राजनांदगांव, दुर्ग, रायपुर, धमतरी, महासमुंद, कवर्धा सम्मिलित है। कमार, हल्बा, भतरा, सौंता, सौनता, बिंझवार, आदि प्रमुख है।

(स) दक्षिणी क्षेत्र --> इस क्षेत्र के बस्तर, दंतेवाड़ा और कांकेर जिले सम्मिलित है । यह क्षेत्र सघन जनजातीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है । यहाँ की प्रमुख जनजातियाँ गोड़, हल्बा, मारिया, हल्बी, अबूझमाड़ियां , परजा , कोलमगड़ाबा तथा भतरा आदि हैं।



मुरिया गोंड़ो की ही उपजाति है । मुरिया नाम "मुड़" शब्द से विकसित हुआ है , जिसका अर्थ होता है "पलाश का वृक्ष"। शाब्दिक दृष्टि से मुरिया का अर्थ है -"आदिम मुरिया"। वास्तव में बस्तर जिले में कोण्डागाँव और नारायणपुर तहसील की एक विशेष जनजाति के ऱूप में प्रयुक्त होता है । सामान्यतः इनका विस्तार बस्तर , दंतेवाड़ा और कांकेर जिले में हैं ।

मुरियाओं की एक अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान है। ये सामान्यताः गोंड़ी व हल्बी भाषाएँ बोलते है। इनका रंग सांवला नाक नक्सा सुंदर और मध्यम कदकाठी के होते है। इनके मकान व्यवस्थित लकड़ी व खपरे, उसीर घास मिट्टी से बने होते है। शिकार, कृषि, मजदूरी लकड़ी कटाई इनके आदि व्यावसाय है।

मुरिया जाति के लोग विभिन्न संग्रोत्रीय समूहो में विभाजित है, जिनके अलग-अलग गणचिन्ह (टोटम)होते है। मुरियाओं की सबसे पृथक समाजिक व सास्कृतिक विशेषता घोटुलप्रथा है।घोटुल प्रथा एक युवागृह होता है, जिससे गांव के सभी 12 वर्ष के ऊपर के बालक-बालिकाएँ आकर रात्रि में विश्राम करते है यह इनके पारंपरिक ज्ञान का केंन्द्र बिंन्दु है जिससे ये आपसी सहयोग से नृत्य.संगीत, चित्राकला आदि सीखते है। विवाह के बाद युवक युवतियाँ घोटुल के सदस्य नहीं रह जाते। मुरिया घोटुल की उत्पत्ति अपने प्रमुख देवता,"लिंगोपेन " से मानते है।

मुरियाओं की समान ही घोटुल की प्रथा कुछ अन्य जनजातियों में भी भिन्न-भिन्न नामों से पाई जाति है-जैसे उरॉव जनजाति में "घुमकुरिया" बिरहोर जनजाति में


"गितिओरा" भुईया जनजाति में "धंसरबासा" भारिया जनजाति में घोटुल को "रंगबंग" कहा जाता है ।

नृत्य घोटुल का एक अनिवार्य अंग है जिसमें चेलिक (घोटुल किशोर) और मोटियारिनें (घोटुल किशोरियां) नाचते हुए एक दुसरे से मुग्ध होती है और थक जाने पर अपने पसंदीदा साथी के साथ जोड़ियाँ बनाकर अपने-अपने घोटुल घरों में प्रवेश करते है । यहाँ युवतियां अपने जोड़ीदार के बाल सॅवारती है, कंघी करती है और साथ-साथ रात्रि व्य़तीत करते है । मुर्गे के प्रथम बांग के साथ ही सुबह घोटुल खाली हो जाता हैं।





पहाड़ी कोरवाओं की भांति ही छत्तीसगढ़ की एक अन्य जनजाति ''बैगा'' को भारत शासन द्वारा अत्यंत पिछड़ी जनजातियों की श्रेणी में रखा गया है।बैगा एक द्रविड़ियन जनजाति है जो छत्तीसगढ़ में बिलासपुर, कवर्धा, राजनांदगांव और सरगुजा में पायी जाती है इनकी सात उपजातियां है-बिझवार, भतोरिया,नरोतिया,राभईना,कहभईना, कोंड़वन और गोंड़ वैन ये अपने समुह से बाहर विवाह करना प्रसंद करते है इनसे बिझवार अब स्वयं को "बैगा जनजाति" नहीं मानती हैं। बैगाओ की उत्पत्ति के बारे में एक मान्यता है कि ईश्वर ने पृथ्वी में सर्वप्रथम नंगा बैगा और नंगा बैगीन को बनाया, इनकी दो संताने उत्पन्न हुई जिसमें से प्रथम बैगा और दूसरी गोड़ के रूप में विकसित हुई। बैगा सामान्यतः मध्यम कद व सुडौल बनावट के होते है। रंग सांवला, नाक चपटी, होंठ मोटे और शरीर गठीला होता है। बैगीन सांवली होती है। लेकिन मण्डला बिलासपुर के सीमा क्षेत्र"सिंदूर खार" की पहाड़ी बैगीन श्वेत वर्णी होती हैं। बैगा ऊँचे स्थानो और जंगलों में बसना पसंद करते है। इनके मकान लकड़ी, बांस, बक्कल,


डोरा और घास से बने होते है। घर की दीवारों का निर्माण लकड़ी से किया जाता है और उसमे ऊपर से मिट्टी छाप दी जाती है। ये अपनी घर की दीवारों को "नोहडोरा"से अलंकृत करते हैं नोहडोरा आदिवासी उद्रेखण कला है, जो कि गीली दीवारों पर की जाती है। इसमे विशेष उभार के साथ देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों, पेड़ पौधों आदि की छबाई दीवारों पर की जाती है। < बैगा एक स्थानांततरित कृषि करते है जिसे बैवर खेती कहा जाता है। साथ ही जड़ी बूटियों का,संग्रह करना झका मुख्य व्वसाय है। ये अत्यंत सामान्य जीवन व्यतीत करते है।पेट भरने के लिए कोई भी भोजन और पीने के लिए ताड़ी(एक प्रकार की शराब) मिल जाना इनके लिए पर्याप्त है गोड़ों के समान ही इनके भी प्रमुख देवता "बढ़ा देव" और " ठाकुर देव "है ये साल भर पर्व त्यौहारों के साथ दशहरा, करमा, झरपट,रीना, बिलमा, परछौनी आदि नृत्य करते है।इन नृत्यों के समय पुरूष कमर में लहंगेनुमा साया कमीज और घास का लादा और फूल आदि सिर पर खोंसंते है। गलें में गुरियो की माला, कानो में तरहुल मुगों की माला पहनते है। नगाड़ा, टिमकी चुटकी और अलगोंजा इनके प्रमूख वाघ यंत्र है। बैगा महिलाएँ कमर में करधनी पैर मे अगुलियों में चुटकी ( बिछिया) हाथ और पैर में चूड़ा कानों में लुरकी और गले में जड़ी बूटीयों व मूंगों के हार पहनती है। गोदना इसका प्रमुख आभूषण है बैगा स्त्रियाँ लगभग पूरे शरीर में गोदना गुदवाती है। इनका मानना है कि और सभी आभूषण तो मृत्यु के पश्चात यही रह जाती है सिर्फ गोदना साथ रह जाता है।

प्रसिद् मानवशस्त्री " वैरियर एल्विन ने छ.ग. में बैगाओं के बीच कई बरस रह कर इनका अध्ययन किया और उन पर विश्वाप्रसिद् किताब " द बैगा " लिखा जिसमें उन्होने इनके जादू टोने और झाड़ फूक से रोगों का उपचार करने की बैगा- मान्यताओं के विशाल उल्लेख किया है।


बैगाओं पर वैरियर एल्विन के अध्धयन् के समान ही प्रसिद्ध भारतीय समातशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने छत्तीसगढ़ की एक अन्य आदिम जाति "कमार" का गहन अध्धयन् किया है। कमार छच्तीसगढ़ की उन 5 आदिम जातियों मे से एक है, जिसे भारत शासन द्वारा अत्यंत पिछड़ी आदिम जाति घोषित किया गया है।

ये छत्तीसगढ़ के रायपुर, धमतरी और महासमुंद जिलों में निवास करते। इनकी अजीविका का मुख्य साधन रस्सियाँ व बांस की टोकरियाँ, झाडु आदि बनाना शिकार करना, मछली मारना और शहद व कंदमूल इकट्ठा करना है। मशरूम इनके मुख्य भोजन आधार है। ये प्रायः मांसाहारी होते हैं। कमारों में घोड़े को छूना या घुड़सवारी करना अपराध माना जाता है।

कमार जनजाति कई गोत्रों में बंटी हुई है और प्रत्येक गोत्र का टोटम (प्रतीक चिन्ह) होता है-

नेताम के-कछुआ, मरकाम के-कछुआ, बाघ सोरी के-बाघ, नाग सोरी के-नाग, कंजम के-बकरा, मरई के-लाश भक्षी

कमार आदिवासी गोत्र बहिर्विवाही होते हैं। कमारों के प्रमुख देवता "वन देवता" है। इसके अतिरिक्त ये दुल्हादेव,ठाकुरदेव,बुधाराज,चेचक माता(मातादाई),हैजादेवी,बड़ी चेचक माता


(बड़ी माई), छोटी चेचक माता(छोटी माई),गाताडूमा आदि के साथ-साथ शिव-पार्वती,हनुमान आदि की भी पूजा करते हैं।

कमार महिलाओं का प्रमुख आभूषण गोदना है। ये अपनें कंधों पर मोर,हाथ के ऊपर बिच्छू ,ऊंगलियों पर मक्खिय़ां गुदवाती हैं। बांहों और पिंडलियों पर गोल-गोल रेखाओं के आकार की बिंदिया गुदवाती है। दशहरा,हरेली,पोटा,नवाखाई,छेरछेरा,फागुन तिहार आदि इनके प्रमुख त्यौहार हैं। अपनें लोहे के हथियारों की पूजा ये दशहरे में करते हैं,और देवी-देवताओं को मदिरा अर्पण करते हैं।









भारिया के समान ही "कोरवा जन जाति"छ.ग. की एक अत्यंत पिछड़ी और आदिम अवस्था में रहने वाली जनजातिहै। जिसे सरकार द्वारा अतयंत पिछड़ी जनजातियों की श्रेणी में रखा गया है ।यह जनजाति प्रमुख रूप से, कोरबा,जशपुर, रायगढ़, सरगुजा व बिलासपुर में निवास करती है।यह वनेरियन परिवार.जनजाति है जो कि"कोरबोर" " सिंगली"या "कोरवा"बोली बोलती है। यह वास्तव में झरखण्ड की कोल या मुण्डा अदिवासियों की हो एक साखा है।

"कोरवा" शब्द उत्पत्ति "होडावास"से मानी जाती है, जिसका अर्थ है "पृथ्वी को खोदने वाला"कोरवाओं के प्रमुख प्रकार है देहारी कोरवा व पहाड़ी कोरवा। देहारी कोरवा, मैदानी इलाकों में निवास करती है,जबकि पहाड़ी कोरवा, दुर्गम पहाड़ीयों और जंगलों में कोरवा पुरूष बहुत कम वस्त्र पहनते है सामान्यः ये सिर्फ एक धोती घुटनों तक पहनते है। और कभी कुर्ता भी। कोरवा महिलाएँ अपने शरीर को मात्र एक धोती से ढ़कती है। इसमें व्लाउज की प्रथा प्रायः नही है।

गोदन प्रथा इनके जीवन चक्र का एक अनिवार्य हिस्सा है।कोरवाओं के बच्चों 5 वर्ष की उम्र के बाद हाथ पर 10से16 निशान आग से जलाने के बनाए जाते है जिसे "दरहा"कहा जाता है।सामान्यतः महिलाओं के हाथ में 6 इंच लंबाई और पैरों में एड़ी के


ऊपर 4इंच तक गोदना करवाया जाता है। मूगों के माला की आभूषण इनमें प्रायः देखने को मिलता है।

कोरवा मूलतः मांसहारी है। ये बंदर.घोड़ा व भालू को छोड़कर लगभग सभी पशु, पिक्षियों के मांस खाते है।तीर, धनुष, हसिया इनके शिकार के प्रमुख हथियार है।फूल पहाड़ी और दोनों ही कोरवा "महुआ"से बनी शराब "हाण्डिया"पीते है। हर उत्सव विवाह आदि अवसरों पर हण्ड़िया अनिवार्य होता है

कोरवाओं के प्रमुख देवता गोरिया देव (पशुधन देवता), सिगीर देव, महादेव आदि है।बीन, बोहानी, हरली,नवाखनी,धरसा आदि इनके प्रमुख त्यौहार के अतंर्गत आते है ये सभी त्यौहार कृषि से संबंधित है।


मुरियों के समान ही गोंड़ो की एक उपजाति माड़ियां है जो छत्तीसगढ़ के बस्तर दंतेवाड़ा और कांकेर जिलों में निवास करती है । अबूझमाड़ की घनी पहाड़ियों में निवास करने के कारण इन्हें "अबूझष माड़ियां आदिवासी " भी कहा जाता है । ये बाह्यय संचार व संस्कृतियों से लगभग अछूते रह गए है । ये न्यूनत म विकसित गोंड़ है । अबूझमाड़ियां अर्थात "जंगली अज्ञात पहाड़ियों में निवासरत" ये आदिवासी अत्यंत कम कपड़े पहनते है , महिलाओ के वक्ष स्थल लगभग खुले या मात्र धोती से ढंके होते है । पुरूष सामान्यतः लंगोटी पहनते है । महिलाएं गले में मोटा हार पहनती है ।

माड़ियां शब्द की व्युत्पत्ति "माड़" से हुई है जिसका अर्थ है "वृक्ष या जंगल", परंतु मूल माड़ियां लोग आज भी स्वयं को "मेटाभूम" पुकारते है।

माड़ियाओं का ही एक वर्ग ''वाइसन हार्व माढ़िया '' कहलाता है, क्योकि ये लोग अपने विशेस पर्व "ककसार"में वन्य भैसा (bison horn) के सिंगों को सिर पर बांधकर नाचते है। इनका निवास इन्द्रवती नदी के दक्षिण में दंन्तेवाड़ा, कोटा, जगदलपुर और बीनापुर तहसीलों में है।

माड़ियांओ का औसत कद 5.10 होता है -ये सांवले , छरहरे बदन व चपटी नाक वाले होते है । ये अत्यधिक परिश्रमी व खूंखार होते है ।इनमे जादू टोना व टोटके का चलन अधिक है । इनके मकान घांसफूस , बांस व मिट्टियों से बने अत्यधिक जर्जर झोपड़े


होते है । इनके झोपड़ों में दो विशेंष स्थान होते है जिनमें बाहर के लोगों आना वर्जित होता है। पहला"सेन्टम" इस स्थान में पत्नी तब नही आ सकती जब वह मासिक धर्म में हो।दूसरा स्थान है"वेण्डु कुरमा"यह वह स्थान है जहाँ पत्नी मासिक धर्म के समय बैठी रहती है। शराब और मांस का प्रचलन इस जनजाति में सर्वाधिक होता है। ग्रिगर्सन (समाजशास्त्री )के अनुसार अबूझमाड़ियाओं के 50 और श्यामाचरण दुबे (समाजशास्त्री) के अनुसार इनके 91- गोल पाए जाते हैं।


छत्तीसगढ़ की जनजातियों में सर्वाधिक उन्नतिशील तथा सभ्य जनजाति है। ये द्रविड़ के वंशज माने जाते है । इनका विस्तार प्रदेश के लगभग सभी जिलों में हैं । अपनी 41 उपजातियों के साथ गोंड़ ना केवल छत्तीसगढ़ अपितु सम्पूर्ण भारत की प्रमुख जनजाति हैं।

गोंड़ो का विस्तार पूर्व में नर्मदानदी के दोनों ओर सतपुड़ा मैकल श्रेणी और विन्ध्याचल में है- यह क्षेत्र पहले "गोंण्डवाना लैण्ड" के नाम से प्रसिद्ध था। गोंड़ शब्द की व्युत्पत्ति तेलगु शब्द "कोंड" से मानी जाती है , जिसका अर्थ है "पर्वत या पहाड़"। ये द्रविड़ियन भाषा समूह की बोली बोलते है ।

गोंडों का पारम्परिक व्यवसाय शिकार व मछली मारना था परंतु अब अधिकाश गोंड़ खेतिहार मजदूर है।गोंडों के अनंक उपविभाग है जिनमें से राजगौड़ और धौलीगोंड़ प्रमुख है।

राजगौड़- इन्हें श्रेष्ठ गौंड़ कहा जाता है । राजगौंड़ संभवतः राजपूत और गोडों के संबंधों से उपजे वंशज है । हिन्दू परम्परा के अनुसार अन्य गोंड़ो की तुलना में राजगोंड़ो का स्थान उच्च है । इनका नाम "भू-स्वामी" उपशाखा के लिए प्रसिद्ध है ।

पाडलगौंड़- ये लोग राजगोंड़ो के पुरोहित माने जाते है और विवाह व पूजापाठ आदि कार्यो में संलग्न होते है ।


धोली गोंड़- ये शादी विवाह आदि अवसरों पर ढोल मांदर आदि बजाने का कार्य करते है । इसीलिए इन्हें धोली गोंड़ कहा जाता है ।

इनके अतिरिक्त सघन आदिवासी क्षेत्र बस्तर में गोंड़ो के 3 उपजातियां पाई जाती है, जो कि अपनी अलग सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है- ये है मारिया , मुरिया और डोरला ।







छत्तीसगढ़ की अधिकांश जनजातियाँ जहां मांस- मदिरा की शौकीन हैं, वहीं यहां की एक प्रमुख जनजाति "हलबा" है, जिसने मांस-मदिरा का त्याग कर दिया है। यह जनजाति कवर्धा, रायपुर, बस्तर, दुर्ग, कांकेर, राजनांदगांव आदि जिलों में पाई जाती है। हल्बाओं की भी तीन प्रमुख उपशाखाएँ हैं - बस्तरिया, छत्तीसगढ़िया और मरेथिया ।
हलबा एक प्रगतिशील जनजाति है, जो अपनी उत्पत्ति महादेव पर्वत से मानते हैं। अन्य जनजातियों की अपेक्षा इनमें शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा है। हलबाओं का ही एक दूसरा सम्प्रदाय है जो कि दुर्गादेवी की उपासना करते हैं, ये "सवता हलबा" कहलाते हैं।
हलबा पारंपरिक रूप से किसान हैं और इनकी महिलाएँ जंगलों से कंदमूल, फल इत्यादि एकत्रित करतीं हैं। दशहरा, दीपावली और होली इत्यादि के साथ-साथ ये जिदरी, नवाखानी आदि भी पूजते हैं।


भतरा भी अबूझमाड़ियों की भांति एक आदिम जनजाति है जो मुख्यतः रायपुर, बस्तर, कांकेर व दंतेवाड़ा जिलो में निवास करते है । इनका मुख्य निवास इंद्रावती नदी के पूर्वी मैदान में स्थित "जगद लपुर" में है ।

भतरा शब्द का अर्थ है "सेवक"। अदिकांश भतरा , ग्राम चौकीदार या अर्थ सेवक होते है । कुछ घरेलू नौकर के रूप में कार्य करते है । वर्तमान में भतरा स्थायी कृषि करने लगे है । इनकी मुख्य फसल चांवल है , इसके अतिरिक्त ये तिलहन , गन्ना और गेहूँ की कृषि भी करते है ।

भतराओं की भी 3 श्रेणीयाँ है- पिट अमनाईत और सन्भतरा, जिसमें से पिट भतरा उच्चाश्रेणी के माने जाते है,जबकि सनभतरा सबसे निम्ना श्रेणी के भतरा है। ये तीनों भतरा श्रेणी के लोग तब तक एक दूसरे घर भोजन नही करते है, जब तक कि ये विवाहित नही हो जाते है।

भतरा आदिवासी "शिकार देव"अर्थात "माती देव" की उपासना करते है।


धनवार जनजाति छत्तीसगढ़ में मुख्य रूप से बिलासपुर जिले में और सामान्य रूप से सरगुजा, कोरिया, जांजगीर-चांपा और कोरबा जिलों में भी पाई जाती है।
धनवार अपने आप को गोंड़ों के वंशज मानते हैं। मानवशास्त्रियों के अनुसार ये गोंड़ और कंवर जनजातियों के सम्मिश्रण हैं। शिकार और आखेट इनका प्रमुख व्यवसाय है। धनुष-बांण के अत्यधिक प्रयोग के कारण ही इनका नाम "धनवार" पड़ा । ये धनुषबांण बनाने के लिए बांस और "धानन वृक्ष" की लकड़ियों का प्रयोग करते हैं। इन बाणों की नोंक पर ये लोहे की फनी लगाते हैं। बाण के दूसरे सिरों पर मोर के पंख या बाज के पंखों को धागे से बांधकर लगाते हैं।
प्रत्येक धनवार के घर में धनुषबाण की पूजा की जाती है। बच्चे लगभग 5-वर्ष की उम्र से ही शिकार के लिए धनुषबाण चलाना प्रारंभ कर देते हैं।






ये रायगढ़ और सरगुजा जिले में निवास करते हैं। ये स्वयं को किसान कहते हैं तथा "सदरी" बोली बोलते हैं, जो मुंडारी भाषा समूह की एक शाखा मानी जाती है। इनकी उत्पत्ति "नाग वंशिया" अर्थात् नाग से हुई है, इसलिए ये अपने आप को सर्प के वंशज मानते हैं।
नगेशियाओं के तीन अंतर्विवाही समूह हैं - तेलहा, धुरिया तथा सुंदरिया, जो विवाह के समय क्रमशः तेल, वर के पैर की धूल और सिंदूर लगाते हैं। इनके शारीरिक लक्षणों का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर ये मुण्डा जनजाति से समानता देखने को मिलती है।


यह जनजाति मुख्य रूप से रायपुर और बिलासपुर जिले में निवास करती है और अन्य जनजातियों की तुलना में अधिक अच्छी स्थिति में है। यह द्रविडियन जनजाति मंडला और बालाघाट के बैगा जनजाति की एक उपशाखा है परन्तु अब ये बैगा से अपने संबंधों को नकारते हैं तथा एक अलग जनजाति के रूप में विकसित हो गए हैं।
'बिंझवार' शब्द की व्युत्पत्ति "विन्ध्य" पहाड़ी से मानी जाती है। ये "विन्ध्यवासिनी देवी" की उपासना करते हैं। इनके पूर्वज बिंझाकोपा से लम्पा (जो संभवतः बालाघाट से लम्टा तथा बिलासपुर से लाफागढ़ है) की ओर प्रवजित हुए हैं। ये अपने पूर्वज विन्ध्यवासिनी पुत्र "बारह भाई बेटकर" को मानते हैं। बिंझवार की चार उप जातियाँ हैं- बिंझवार, सोनझार, बिरझिया और बिंझिया। इनमें से बिलासपुर के बिंझिया स्वयं को एक अलग जनजाति के रूप में मानते हैं।




छत्तीसगढ़ के गांव में खेले जाने वाले खेल - डुडुआ या कबड्डी, खो-खो, चौपड़ या पाशा, पचीसा, नौंगोटी-चालगोंटी या भटकौला, छेरी बाघ (शतरंज, चौपड़ की तरह का एक खेल), गिल्ली-डण्डा, डण्डा-पचरंगा-झाड़ बेंदरा, गेंड़ी-गेंड़ी दौड़ (हरेली पर्व), छुआ-छुऔव्वल-भुर्री-चर्रा-चर्रा, टीप रेस, चोर-सिपाही, राग-रस, धम्मक - धुम्मक, सत्तुल, बिस-अमृत, नदी-पहाड़ आदि हैं।








Ashok Kumar Yadaw

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